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________________ XIV सो सव्व सुतक्खं गब्भन्तरभूतो जतो ततो तस्स आवासयाणुयोगादिगहणगहितो अणुयोमोवि / / (गा०९) मन्त्र शब्दरूप होता है और भारतीय मनीषियों ने शब्द को ब्रह्म कहा है। ब्रह्म विराट् है। दूसरी ओर ध्वनि की विराटता विज्ञान सम्मत है कारण कि ध्वनि सेकिन्डों में लाखों मीलों की दूरी तय करते हुए ब्रह्माणु में व्याप्त हो जाती है। मन्त्रोचारण करते समय साधक के रोम-रोम से ध्वनि की विद्युत धाराएं चारों ओर फैलने लगती है। जो विशिष्टसाधक साधना के रहस्य सिन्धु की गहराइयों तक पहुंच जाते हैं वे विभिन्न आसनों एवं विविध मुद्राओं द्वारा ध्वनि स्वरूप शारीरिक विद्युत धारा को इस प्रकार नियंत्रित कर लेते हैं कि जैसे गहन अन्धकार में सहसा बिजली के चमकने से सब कुछ प्रत्यक्ष हो जाता है वैसे ही उनके सामने सार्वभौम सत्य अपने समग्ररूप में युगपत् प्रगट हो जाता है। जैन परम्परा में इस समग्र सत्य के साक्षात्कार को केवलज्ञान कहा जाता है। इस केवलज्ञान और परिपूर्ण सत्य की उपलब्धि के मूल में जो ध्वन्यात्मक विद्युतप्रवाह है वही उसका मूलमन्त्र है। इसीलिए प्राचीन आचार्यों ने मन्त्र शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है कि जिसके मनन करने से मनन करने वाले की रक्षा हो अथवा जिन पदों के जप करने से आत्मा परमात्मारूप आविर्भूत हो जाय वह मंत्र है - मननात् त्रायते यस्मात् तस्मात्मन्त्र प्रकीर्तितः (महार्थमञ्जरी, पृ० 102) __ मंत्रों में कुछ एक मन्त्र लौकिक कार्यों की सिद्धि के लिए होते हैं तो कुछ मन्त्र लोकोत्तर पद प्रदायक होते हैं किन्तु पञ्च परमेष्ठी णमोकारमंत्र दोनों ही प्रकार के कार्यों का फलप्रदान करने वाला महामन्त्र है। डॉ० नेमीचन्द्र जैन ने लिखा है कि यद्यपि इस मन्त्र का यर्थाथ लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है तथापि यह लौकिक दृष्टि से समस्त कामनाओं को पूर्ण करता है। अभीष्ट सिद्धिकारक यह मन्त्र तीर्थङ्करों की परम्परा तथा गुरु परम्परा से अनादिकाल से चला आ रहा है - इदं अर्थमन्त्रं परमार्थतीयपरम्परागुरुपरम्पराप्रसिद्धविशुद्धोपदेशम् इस प्रकार यह महामन्त्र आत्मा के समान अनादि एवं अविनश्वर है / महामन्त्र की ऐतिहासिकता : मानव स्वभाव से जिज्ञासु रहा है / महामन्त्र की प्राचीनता और उसकी उत्पति के विषय में विविध प्रश्न उसके मन में उठते रहे है। हजारों वर्षों के अनुसन्धान से यही ज्ञात हुआ है कि यह मंत्र अनादि अनन्त है। तीर्थङ्कर इसी मंत्र के माध्यम से धर्म का प्रचार एवं 1. मङ्गलमन्त्र णमोकार: एक अनुचिन्तन, पृ० 17,58 2. महामन्त्र णमोकार: वैज्ञानिक विश्लेषण, पृ० 43
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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