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________________ 109 आचार्य - परमेष्ठी (7) स्नानशृंगार-आदिवर्जन : जो ब्रह्मचारी स्नान एवं वेशभूषा आदि से शरीर को सजाता है, उसके प्रति स्त्रियांआकर्षित होती हैं जिससे उसके ब्रह्मचर्य पालन में बाधा आसकती है / अतः वह अलंकृत वेशभूषा का परित्याग करे और शृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे / ' (10) पंचेन्द्रियविषयासक्तिवर्जन : जो ब्रह्मचारी पाँचों इन्द्रियों के विषय शब्द, रूप, रस गन्ध और स्पर्श में आसक्त रहता है, उसका ब्रह्मचर्य कभी भी स्थाई नहीं हो सकता / विषयों के भोगोपभोग से मानसिक चंचलता उत्पन्न हो जाती है और ब्रह्मचर्यव्रत भ्रष्ट हो जाता है। अतः वह ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिए इन समस्त कामगुणों से सदैव दूर रहे / आचार्य के लिए ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य से डिगाने वाले इन सभी शंका-स्थलों का त्याग करना आवश्यक है / इन समाधि-स्थानों का ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए विशेष महत्त्व होने के कारण इन्हें ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ भी कहा गया है / दसवां समाधि स्थान अन्य नौ समाधिस्थानों का संग्रहरूप होने से उसे पृथक् न मानकर नौ ही ब्रह्मचर्य की गुप्तियाँ बतलाई गई हैं / (इ) चतुर्विधकषायविजयी आचार्य : जो आत्मा को कसे अर्थात् दुःख दे, वह कषाय है / क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं जो कि मनुष्य के हृदय में रहने वाली अग्नि के समान हैं | जब यह कषाय रूपी अग्नि भड़कती है तो साधक के क्षमा, दया, शील एवं संयम आदि सभी गुणो को नष्ट कर डालती है। इन कषायों पर विजय पाकर ही व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर हो सकता है | दशवैकालिक सूत्र में बतलाया गया है कि 'क्रोध आदि चारों कषायों से पाप की वृद्धि होती है, इसलिए आत्महितैषीव्यक्ति को चाहिए कि वह इन चारों को छोड़ दे / आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है कि 'जो जीव मान, माया और क्रोध से रहित है, लोभ से वर्जित है तथा निर्मल स्वभाव से युक्त है, वही उत्तम सुख को प्राप्त करता है | 1 बिभूसं परिवज्जेज्जा सरीरपरिमण्डणं / बम्भचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए / / वही, 16.6 2. सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य / पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए / / उ०१६.१० 3. दे०-वही, 31.10 4. दे०- समवाओ, 6.1 5. कषति हिनस्त्यात्मानं दुर्गतिं प्रापयतीति कषायः / त० वृ०६.४, पृ०२१३ 6. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढ़णं। वमे चतारि दोसे उ इच्छंतो हियमप्पणो।। दश०८.३६ 7. मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो। निम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं / / मोक्षपाहुड़, गा० 45
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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