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________________ आचार्य - परमेष्ठी 105 स्वभाव वाले होने से धर्मप्रभावक होते हैं / क्षमासम्पन्न आचार्य : _वे क्षमा गुण में पृथ्वी के समान, सौम्य गुण से चन्द्रमा के समान और निर्मलता गुण में समुद्र के सदृश होते हैं / ' आचार्य निश्चय और व्यवहार रूप में पंचाचारों से युक्त शुद्धोपयोग? की भावना से सहित, वीतराग निर्विकल्प समाधि का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरों से भी कराते हैं / इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आचार्य स्वयं उच्च चारित्र का पालन करता है और दूसरों शिष्यों एवं भव्य जीवों को इसके पालन करने की प्रेरणा देता है / वह मुनि-संघ का अग्रणी होता है / मुनिचर्या के संचालन में उसकीआज्ञा अन्तिम और मान्य होती हैं अतः संघ के संचालक के रूप में एक सुयोग्य आचार्य स्वयं अपना तो कल्याण करता ही है साथ ही समूचे संघ को कल्याण के मार्ग पर अग्रसित करता है / आचार्य के पर्यायवाची शब्द : जैनागम में आचार्य के लिए अनेक शब्द मिलते हैं | उनमें प्राज्ञ, मेधावी, विद्वान्, अभिरूप, विचक्षण, पण्डित, सूरि, आचार्य वाग्मी एवं नैयायिक आदि विशिष्ट हैं / ये सभी शब्द सार्थक हैं और आचार्य के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। जो वस्तु को प्रकृष्ट रूप से जानता है, वह प्राज्ञ है और मेधा सम्पन्न को मेधावी कहते हैं / जो ज्ञाता है, वही विद्वान् है, जिसने स्वरूप को प्राप्त कर लिया है वह अभिरूप है और जो वस्तु तत्त्व को अनेक प्रकार से देखता है, उसका प्रत्यवेक्षण करता है, वह विचक्षण है / पण्डा अर्थात् बुद्धि और जिस चरित्रवान् को यह उत्पन्न हो गई है, वह पण्डित, तथा जो बुद्धि को उत्पन्न 1. वही, वृत्ति 2. जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद का उपचार करता है वह व्यवहार नय है तथा जो उसके विपरीत अर्थात् जो वस्तु को उसके स्वाभाविक रूप में ग्रहण करता है वह निश्चयनय है नय चक्र, गा० 264 3. जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुदेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसमावो || प्रवचनसार, गा० 1.6 4. विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मतत्त्वसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठान बहिर्द्रव्येच्छा-निर्वृतिरूपं तपश्चरणं स्वशक्तयनवगूहनवीर्यरू पाभेदपञ्चाचाररूपात्मकं शुद्धोपयोगभावनान्तर्भूतं वीतरागनिर्विकल्पसमाधि स्वयमाचरन्त्यन्यानाचरयन्तीति भवन्त्याचार्यास्तानहं वन्दे ।परमात्म० 1.7 वृत्ति 5. प्राज्ञमेधाविनौ विद्वनभिरूपो विचक्षणः / / पण्डितः सूरिराचार्यो वाग्मी नैयायिकः स्मृतः / / नाममाला, श्लो० 111
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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