SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ परिच्छेद आचार्य - परमेष्ठी जैनदर्शन में देव, गुरु और शास्त्र (आगम, श्रुत) को महत्त्व दिया गया है। अरहन्त एवं सिद्ध दोनों ही देवत्व में आते हैं और इनके पश्चात् आचार्य ही पूजनीय होते हैं / जैन आचार्य की परमगुरु के रूप में अर्चा की जाती है, उन्हें सम्मान दिया जाता है / आचार्य महाराज ही संसारियों को कल्याण की ओर ले जाते हैं और स्वयं अपना उद्धार करते हैं। आचार्य को गुरु', बुद्ध, पूज्य 3. धर्माचार्य', भन्ते एवं भदन्त आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है / (क) गुरु-आचार्य भारतीय संस्कृति में : भारतीय संस्कृति में गुरु पद अत्यधिक महिमापूर्ण रहा है |आपस्तम्बधर्मसूत्र में कहा गया है कि गुरु का सत्कार ईश्वर की भांति करना चाहिए। मनुस्मृति में भी गुरू के प्रति विशेष आदरभाव पर बल दिया है / रामायण में गुरु को प्रज्ञाचक्षु प्रदान करने वाला बतलाकर उसे माता-पिता से भी श्रेष्ठतर कहा है | राम ने माता-पिता की ही भांति गुरु को भी अर्चना का पात्र बतलाया है / तीर्थकर तुल्य गुरु : जैन वाङ्मय में भी गुरु का विशेष महत्त्व उपलब्ध है |अरहन्त अथवा तीर्थंकर प्रत्येक काल में विद्यमान नहीं होते / उनकी अनुपस्थिति में उनका प्रतिनिधित्व करने वाला गुरु ही होता है / गच्छायारपयन्ना में उन्हें 'सूरि' बतलाते हुए तीर्थ£र की उपमा दी गई है / 10 1. दे०-उ०, 1.2, 3, 16, 20:26.8 2. वही, 1.8, 17,27.40,42,46 3. वही 1.46 4. वही.,३६.२६५ 5. वही, 6.58; 12.30:20.11:23.22:26.6 6. देवमिवाचार्यमुपासीत / आपस्तम्ब-धर्मसूत्र, 1.2.6.13 7. व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसङ्ग्रहणं गुरोः / सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो दक्षिणेन च दक्षिणः / / मनुस्मृति, 2.72 8. बाल्मीकि रामायण, 2. 111.3 6. बाल्मीकि रामायण, 2.30.33 10. तित्थयरसमो सूरी सम्मं जो जिणमयं पयासेइ / गच्छायार०, गा०२७
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy