SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 98 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी हैं और अनन्त चतुष्टय-अनन्तज्ञानदर्शन-सुख-वीर्य, अरहन्त और सिद्ध दोनों को ही नियम से उपलब्ध होते हैं / अतः दोनों में गुणकृत कोई भेद नहीं है। दूसरे, आचार्य कहते हैं कि इन अघातिया कर्मों का कार्य चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है जो अघातिया कर्मो के रहने पर अरहन्त परमेष्ठी में नहीं पाया जाता तथा अघातिया कर्म आत्मा के गुणों को घात करने में समर्थ भी नहीं है / अत एव अरहन्त और सिद्ध में गुणकृतभेद नहीं हैं, यदि ऐसा कोई कहता है तब आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि वस्तुतः ऐसा है नहीं, दोनों में गुणकृत भेद तो है किन्तु प्रश्न यह उठता है कि गुण तो अनन्त होते हैं, उनमें कौन से गुणों के कारण भेद है, तब आचार्य बतलाते हैं कि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुष्य कर्म का उदय और सुखगुण का प्रतिबन्धक वेदनीय कर्म का उदय अरहन्तों के ही पाया जाता है सिद्धों को नहीं / यही दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध है। पुनः यहां आचार्य इसी को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं कारण कि यदि वह आत्मा का गुण मान लिया जाए तब उस ऊर्ध्वगमन के अभाव में आत्मा का भी अभाव मानना पड़ेगा। साथ ही उसे सुख गुण का भी अभाव प्राप्त होगा। दूसरे वेदनीय कर्म का उदय केवली में दुःख को उत्पन्न नहीं करता, नहीं तो उसे दुःखोत्पादक मानना पड़ेगा और इससे भगवान् का जो केवलीपना है वह भी नहीं बन सकेगा और ऐसा होने पर केवली हमारी तरह ही पृथक् जन ही होंगे। किन्तु ऐसा है ही नहीं, कारण कि यह अरहन्त और सिद्धों का जो भेदाभेद है वह सलेपत्व और निर्लेपत्व तथा देश-भेद की अपेक्षा होता है। 1. अधातिकर्मोदयसत्त्वोपलम्भात् / तानि शुक्लध्यानाग्निनार्धदग्धत्वात्सनत्यपि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिण्डनिपाताभावान्यथानुपपत्तितः / आयुष्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः / वही, पृ०४७ 2. तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य संसार स्यासत्वात्तेषामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति / वही 3. आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्वात् / वही 4. नोर्ध्वगमनात्मगुणः, तदभावे चात्मनो विनाशप्रसङ्गात् ।सुखमपिन गुणस्ततः एव / / वही, पृ०४८ 5. न वेदनीयोदयो दुःखजनकः, केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात्। 6. किंतु सलेपनिर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम्।। वही
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy