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________________ 86 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी के उदयकाल में उसका स्वाभाविक परिणमन न होकर दुःखरूप अस्वाभाविक परिणमन होता है। सिद्ध जीव के इन मोह आदि कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसलिए उनके गुणों का स्वाभाविक परिणमन होता है। यही कारण है कि उनके समान सुख संसार में किसी अन्य प्राणी के नहीं होता है। (ज) सिद्धों की सादिमुक्तता : ऐसा कोई भी काल नथा, न है और न होगा जब जीव मोक्ष प्राप्त न करते हों। इसके साथ-साथ यह भी निश्चित ही है कि कोई भी जीव अनादिमुक्त नहीं है कारण कि मुक्तावस्था (मोक्ष) से पूर्व संसारावस्था अवश्य स्वीकार की जाती है। मोक्ष पद व्याकरण में 'मुच्' धातु से कृदन्त में या प्रत्यय लगाने पर बनता है जिसका अर्थ है--छुटकारा प्राप्त करना / आध्यात्मिक विषय होने से यहां संसार के बन्धनभूत कर्मों से छुटकारा होना अथवा उनसे पूर्णतः मुक्ति प्राप्त करना ही अभिप्रेत अर्थ है। आचार्य उमास्वाति कहते हैं कि बन्ध के हेतुओं के अभाव और निर्जरा से कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होता है तथा सम्पूर्ण कर्मों का क्षय ही मोक्ष है-कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। इस प्रकार बन्धन के पश्चात् ही मोक्ष होता है। (अ) एक जीव की अपेक्षा सिद्ध-सादि अनन्तः किसी एक मोक्षगत जीव की अपेक्षा से सिद्ध भगवान् को सादि-अनन्त कहा जाता है क्योंकि जिस काल में अमुक जीव मोक्ष में है, उस काल की अपेक्षा से उस जीव की आदि तो है परन्तु अपुनरावृत्ति होने से वह अनन्त है। अत एव सिद्ध भगवान् सादि अनन्त है। (आ) समुदाय की अपेक्षा सिद्ध अनादि-अनन्त : समुदाय कीअपेक्षा से सिद्धअनादितथा अनन्त भी है। यहां पर समुदाय की अपेक्षा से मुक्त जीवों की उत्पत्ति को जो अनादि कहा गया है उसका अभिप्राय यह नहीं है कि कुछ ऐसे भी मुक्त जीव हैं जो कभी बन्धनयुक्त अर्थात् संसारावस्था में नहीं रहे हैं। इसका मात्र यही भाव है कि बहुत से मुक्त जीव ऐसे भी हैं जिनकी उत्पत्ति का आदिकाल नहीं बतलाया जा सकता कारण है कि यह बतलाना मानव की कल्पना-शक्ति से परे है। इसी से उन्हें अनादि कहा गया है। 1. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः / / त०सू० 8.1 2. बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् / वही, 10.2 3. त०सू०, 10.3 4. एगत्तेण साईया अपज्जवसिया वि य / पुहुत्तेण अणाईया अपज्जवसिया वि य / / उ० 36.65
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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