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________________ 64 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी इन गोपुरद्वारों के मार्ग के दोनों ओर नाट्यशालाएं. इनके आगे गलियों के दोनों ओर दो-दो धूपघट' और इनके भी आगे वन-वीथियां होती हैं। जिनमें एक चैत्यवृक्ष होता है। इस वृक्ष के चारों तरफ जिनेन्द्रदेव की चार प्रतिमाएं विद्यमान होती हैं जिनका अभिषेक स्वयं इन्द्र करते हैं।' समवसरण में नंदा, भद्रा, जया और पूर्णा-ये चार वापिकाएं होती हैं। जिनेन्द्र भगवान् का अद्भुत प्रभाव उन वापिकाओं में प्रतिबिम्बित होता है। हरिवंश पुराण में कहा गया है कि पवित्र जल से परिपूर्ण ये वापिकाएं समस्त पाप और रोग का हरण करने वाली हैं। जो इनमें अपने को निहारते हैं वे अपने भूत तथा भावी सप्त भवों को देखे लेते हैं। भगवान् के समवसरण में स्तूपों का समुदाय बड़ा मनोरम होता है। भवन-भूमि के पार्श्वभागों में तथा प्रत्येक वीथी के मध्य में जिन एवं सिद्धों की प्रतिमाओं से व्याप्त नौ स्तूप होते हैं। (आ) श्रीमण्डप: भगवान् रत्नमय स्तम्भों पर अवस्थित श्रीमण्डप में विराजमान रहते हैं। यह उज्जवल रूफटिकमणि का बना हुआ श्रीमण्डप यथार्थ में श्री अर्थात् लक्ष्मी का मण्डप ही था क्योंकि जिनेन्द्र ने यहीं पर मनुष्य, देव तथा असुरों के समीप तीनों लोंको की श्री को स्वीकार किया था सत्यं श्रीमण्डपः सोऽयं यत्राऽसौ परमेश्वरः / नृसुरासुरासानिध्ये स्वीचक्रे त्रिजगच्छ्रियम्।।" जैनेन्द्र भगवान् के माहात्म्य के कारण केवल एक योजन लम्बे चौड़े इस श्रीमण्डप में समस्त मनुष्य, सुर और असुर परस्पर बाधा न पहुंचाते हुए सुख से बैठ सकते हैं। सुर, नर तथा तिर्यञ्चों के चढ़ने के लिए चारों दिशाओं में एक साथ उन्नत एवं विस्तृत सुवर्णमय बीस हजार सीढ़ियां होती हैं। 1. नाट्यशालाद्वयं दिक्षु प्रत्येकं चतसृष्वपि / वही, 22.148 2. ततो धूपघटौ द्वौ द्वौ वीथीनामुभयोर्दिशोः / वही, 22.156 3. तत्र विथ्यन्तरेष्वांसश्चतम्रो वनवीथयः / वही, 22.162 4. वही, 22.165 5. ताः पवित्रजलापूर्णाः सर्वपापरुजाहराः / परापरभवाःसप्त दृश्यन्ते यासु पश्यताम् / / हरिवंशपुराण, 57.74 6. भवणरिवदिप्पणि धीसुं वीहिं पडि होति भवणवा दूहा। जिणसिद्धप्पडिमाहिं अप्पडिमाहिं समाइण्णा।। तिलोय०४.८४४ 7. आदि० 22.286 8. योजनप्रमिते यस्मिन् सम्मुनूसुरासुराः / स्थिताः सुखमबाधमहो माहात्म्यमीशितुः / / आदि 22.286 6. तिलोय० 4.720
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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