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________________ दर असल में जैनकथानुयोग के उक्त सूक्त असत्य नहीं, अक्षरशः सत्य हैं / जो साधु साध्वी शिथिलताओं का आश्रय लेकर, या श्रावक श्राविकाओं के मोह में नगरपिंडोलक बन उनके ज्ञान, क्रिया, बुद्धि और धार्मिक साहस का विकाश कभी नहीं होता, प्रत्युत वे वास्तविक लोकोपकार और ज्ञानलाभ से वञ्चित रहते हैं। इतना ही नहीं, वल्कि वे विहाराऽभाव से अपने शरीरबल और दुष्प्राप्य संयम-धर्म को भी खो बैठते हैं। ऐसे कूपमंडुकवत् विहार सिथिल साधु साध्वियों को न व्यावहारिक चातुर्य और न संयम-धर्म का लाभ मिलता है। ___ जो साधु साध्वी वर्षावास के सिवाय शेषकाल में मर्यादा पूर्वक ग्रानुग्राम अप्रतिबद्ध विहार करते रहते हैं, वे अपनी श्रुत, संयम, क्रिया और शरीर संपत्ति की सुरक्षा करने का उद्धार और शासन प्रभावना का पारमार्थिक सामर्थ्य प्रगट करके उभय लोक में प्रशंसा पात्र बनते हैं। अतएव अनेक गुण प्राप्ति और लोगों को धर्मोपकार करने के लिये जैनमुनिवरों को प्रामानुग्राम अप्रतिबद्ध विहार करते ही रहना ताम्बूल पेय रु प्रवीणनर, मोली सके न कोय / ज्यों ज्यों चले विदेश में, त्यों त्यों महंगे होय // 1 //
SR No.023536
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1935
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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