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________________ (217) "संवत 1568 वैशाखवदि 8 शुक्रे उपकेश सा. लूणड सा. वीरी आत्मजेन श्रीपार्श्वनाथविं कारितं प्र० विजयप्रभसूरिभिः " ( उपाश्रयस्थित-खंडित जिनप्रतिमा) उक्त श्रीनेमिनाथ भगवान की भव्य प्रतिमा इन लेखों से भी पहले की प्रतिष्ठित है और इन लेखों से यह भी पता लगता है कि विक्रमीय 15 वीं, तथा 16 वीं शताब्दी तक यहाँ प्रखर विद्वान जैनाचार्यों के हाथ से प्रतिष्ठाएँ हुई हैं। इस लिये उस समय तक यह नगर अपनी समृद्धि से समृद्ध और प्रसिद्ध था / कहा जाता है कि पेश्तर यहाँ अकेले श्वेताम्बर जैनों के ही ग्यारहसौ 1100 घर थे जो ऋद्धि से परिपूर्ण थे / लेकिन उपरा ऊपरी मुसलमानी हमले होने और दुकाल पडने से वे सभी यहाँ से निकल कर गुजरात, काठीयावाड, कच्छ और सिंघ में चले गये / वर्तमान में यहाँ साधारण स्थितिवाले श्वेताम्बर जैनों के 20 घर रह गये हैं, जो भावुक, श्रद्धालु और वीसाश्रीमाली ओसवाल हैं। ___ इस जागीर के तालुकदार चोहाण राजपूत है, जो अपने को पृथ्वीराज चौहाण के वंशज बतलाते हैं। संवत् 1410 में रामजी चोहाणने सुंबर राजपुतों को मार-भगा करके भोरोल जागीर पर अपना अधिकार जमा लिया / तब से अब तक इस जागीर के तालुकदार उन्हीं के वंशज हैं। उनकी वंशावळी इस प्रकार है--
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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