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________________ (203) बाद में श्रीपार्श्वकुमार हरिताश्व पर चढ़ कर, और प्राभूषणसहित नीलाम्बर वस्त्र पहने हुए धरणेन्द्र-पद्मावती के साथ प्रगट हुए / वीरचदंमेता को कहा कि ' तुं क्यों लंघन कर रहा है ?, इस हटको छोड़ दे ! जिसके लिये भूखे मरता है वह पार्श्वनाथ प्रतिमा तो गजनीखानने तोड डाली / वह अब किसी तरह श्राने (मिलने) वाली नहीं है।' इसके जबाब में वीरचंदमेताने कहा कि यदि वह प्रतिमा मिलनेवाली नहीं, तो मुझे अब जीना भी नहीं है / चाहे प्राण कल जाते हों तो आज ही चले जायें, परन्तु मैं अपनी कृत-प्रतिज्ञा से किसी प्रकार भ्रष्ट होना नहीं चाहता।' वीरचंदमेता की अचल प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर, धरणेन्द्रने गजनीखान के पास जाकर, कहा कि- अरे अधम ! क्यों निश्चिन्त सो रहा है ? उठ, और भूतखाने को जल्दी भीनमाल पहुंचा दे / अगर मैं रुष्टमान हो गया तो तेरा खेदान-मेदान हो जायगा / इस पर भी तुं ध्यान देगा नहीं, तो तेरे ऊपर कलिकाल रूठ गया समझना / धरणेन्द्रजी के कथन से गजनीखान तनिक भी भय-भीत नहीं हुआ / प्रत्युत उसके हृदय में अभिमान के वादल छागए। उन्मत्त की तरह वह एकदम बोल उठा कि-'अरे ! मैं खुदा का यार, चढियाते भाग्यवाला और सच्चे मुसलमान का बच्चा हूँ, तेरे जेसे काफर का जोर मेरे ऊपर नहीं चल सकता | अरे तुं तो मेरा सेवक है, तुं मुझे क्या डरा सकता है, तेरे जैसे सैंकडों भूतखाने को मुठी में रखता हूँ।' बस एसा कहके गजनीखानने सिरोही के सोनियों को बुला के आज्ञा दे दी
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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