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________________ ॐनमोऽर्हद्भ्यः / चा प्रस्तावना ON दीसइ विविहचरियं, जाणिज्जइ सज्जणदुजणविसेसो / . . अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिजइ तेण पुहवीए // 1 // .. देशाटन से विविध आश्चर्य देख पड़ते हैं, सज्जन दुर्जन की विशेषता का पता लगता है और आत्म विकाश होता है। अतएव देशाटन ( बिहार ) करना चाहिये / (आगम ) देश विदेश फरी फरी, जुए जगत लालाश / तो उपजे उरमा पछी, विशेष बुद्धिप्रकाश // 1 // अबुद्ध बुद्धि प्रापवा, विचरो चारे पास / फलशे फल अतियत्नथी, विशेष बुद्धिप्रकाश // 2 // वहता पानी निरमला, भर्या गंधीला होय / साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय // 3 // प्रयाण करि परदेशमां, परवारि लांबे पन्थ / " कोटि कला कौशल्यता, गुणिजन लावो ग्रन्थ // 4 // इन सूक्तों से विहार से मिलनेवाले लाभ का असली पता भले प्रकार लग सकता है / अतएव जैन साधु साध्वियों को बारिशकाल के सिवाय शेष काल में शास्त्र-मर्यादा पूर्वक विविध
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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