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________________ त्रैलोक्यप्रलयत्राणक्षमाश्चेदाश्रिताः क्षमां / कदलीतुल्यसत्वस्य क्षमा तव न किं क्षमा? // भावार्थ-तीन लोक को नाश करने की और उस की रक्षा' करने की शक्ति रखनेवाले वीर पुरुषोंने भी जब क्षमा ही का आश्रय ग्रहण किया है। तब तेरे समान केलेके समान शक्ति रखनेवाले मनुष्य के लिए क्षमा करना क्या उचित नहीं है / द्रव्य और भाव दोनों ही तरह से क्षमा करना सदा उपयोगी है / यह भी स्मरण में रखना चाहिए कि तथा किं नाकृथाः पुण्यं यथा कोऽपि न बाध्यते / स्वप्रमादमिदानीं तु शोचन्नङ्गीकुरु क्षमाम् // भावार्थ-तूने ऐसा पुण्य क्यों नहीं किया कि जिस से कोई भी मनुष्य तुझ को बाधा न पहुँचावे ? / अब भी चेत और अपने प्रमाद को याद कर क्षमा को स्वीकार / / प्राणियों को पहिले ही से ऐसा पुण्य उपार्जन कर लेना चाहिए कि जिससे कोई भी अन्य प्राणी अपने को बाधा पहुँचाने की हिम्मत न कर सके / यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जायगा तो इस संसार को सारी रचना पुण्य और पाप ही के कारण से बनी हुई मालुम होगी। कोई रंक, कोई राजा; कोई रोगी, कोई निरोगी; कोई शोकी, कोई आनंदी; कोई कुरूप,. कोई सुन्दर; और कोई दरिद्री, कोई धनाढ्य, आदि प्रत्यक्ष विष
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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