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________________ क्रोधवहेस्तदाय शमनाय शुमात्मभिः / श्रयणीया क्षमैकैव संयमारामसारणिः // भावार्थ-क्रोधाग्नि को शमन करने के लिए कल्याण के अभिलाषी जीवों को संयम रूपी बागीचे को हराभरा रखने के लिए जल प्रवाह के समान-क्षमाका ही आश्रय करना चाहिए / यह ठीक है कि-आदमी को क्षमा का आश्रय लेना चाहिए; परन्तु अपराधियों को क्षमा करने का क्या उपाय है ! ऐसी शंका का समाधान करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कि अपकारिनने कोपो निरोढुं शक्यते कथम् ? / शक्यते सत्त्वमाहात्म्याद् यद्वा भावनयाऽनया // अङ्गीकृत्यात्मनः पापं यो मां बाधितुमिच्छति / स्वकर्मनिहतायास्मै कः कुप्येद्वालिशोऽपि सन् 1 // भावार्थ- अपराधियों के ऊपर क्रोध करना कैसे रोका जा सकता है ? उत्तर- पुरुषार्थ के माहात्म्य से रोका जा सकता है-दूसरे इस भावना को भा कर भी कोप रोका जा सकता है कि अपने आत्मा को पाप का भागी बना कर, जो मनुष्य मुझ को हानि पहुँचाने का यत्न करता है, वह बिचारा स्वयं ही निज कर्मोद्वारा हत हो रहा है-सजा पा रहा है-फिर उस पर कौन मूर्ख होगा जो क्रोध करेगा ? / फिर भी कहा है:
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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