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________________ (29) साधु-पद धार कर, जहाँ दीक्षा लेते हैं उस स्थान से विहार करके प्रामानुग्राम विचरण करते हैं। विचरते हैं, परन्तु जब तक उन्हें केवलज्ञान नहीं होता है, तब तक वे मौन रहते हैं; अर्थात् किसी को उपदेश नहीं देते हैं। क्योंकि सूक्ष्म, व्यवहित पदार्थ-और अतिदूरवर्ती पदार्थों का ज्ञान हुए विना उपदेश देने से वचनों में परिवर्तन हो जाने की-कही हुई बात में मिथ्यांश मिल जाने की आशंका रहती है। इसी लिए भगवान केवलज्ञान प्राप्त हुए विना उपदेश नहीं देते हैं। केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने के बाद, चार निकाय के देवव्यंतर, ज्योतिष्क, मुवनपति और वैमानिक देव-समवसरण की रचना करते हैं। भगवान उस समवसरण में बैठकर, द्वादश परिषद के सामने धर्मोपदेश देना प्रारंभ करते हैं / उसी धर्मोपदेश का नाम देशना है। पाठकों को उस देशना के स्वाद का कुछ अनुभव आगे चलकर कराया जायगा। जब तक तीर्थंकरों को केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, तब तक वे देव, मनुष्य और तिर्यंच कृत घोर उपसर्ग और परीसह सहते हैं / जैसे पन्नगे च सुरेंद्रे च कौशिक पादसंस्पृशि / निर्विशेषमनस्काय श्रीवीरस्वामिने नमः //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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