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________________ वरं विभववन्ध्यता सुजनभावभाजां नृणा मसाधुचरिताड़िता न पुनरूनिताः संपदः।। कृशत्वमपि शोमते सहजमायतौ सुंदरं / विपाकविरसा न तु श्वयथुसंभवा स्थूलता // 1 // भावार्थ-सुजन मनुष्यों के लिए सदाचारपूर्वक व्यवहार कर लक्ष्मी हीन रहना अच्छा है, मगर असद् व्यवहार से प्राप्त की हुई महान् संपत्ति भी व्यर्थ है। जैसे कि, स्वभावतः प्राप्त और सुंदर परिणामवाली दुर्बलता भी अच्छी होती है मगर, खराब परिणामवाली, सूजन से प्राप्त स्थूलता व्यर्थ होती है। इसलिए संपदा की-लक्ष्मी की प्राप्ति की इच्छा रखनेवालों को शुभकर्म करने चाहिए / शुभ कर्म नीति से होते हैं। जहाँ नीति होती है यहाँ संपदा स्वभावतः चली जाती है। कहा है किः निपानमिव मण्डूकाः सरः पूर्णमिवाण्डनाः / / शुभकर्णणमायान्ति विवशाः सर्वसंपदः // 1 // भावार्थ-जैसे-निपान-खोबचे के पास मेंडक और जल'पूर्ण सरोवर के पाप पक्षी आते हैं वैसे ही शुभ कर्म वाले मनुष्य के पाप्त संपदा विवश होकर चली आती है। इसलिए हरेक को सब से पहिले न्यायपूर्वक द्रव्य उपार्जन करने का गुण प्राप्त करना चाहिए।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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