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________________ (483) की भक्ति करना / ९-उभयकालीन आवश्यक ( प्रतिक्रपण) क्रिया में अप्रमत्त रहना / १०-व्रत और शील में अप्रमत्तभाव रखना। ११-उचित विनय करना। इसका अर्थ यह नहीं है कि, हरेक के सामने विनय करना / विनय विशेष गुणवान के सामने दिखाना चाहिए / अन्यथा करने से धर्म के बदले अधर्म होता है / इसलिए उचित विनयभाव करना चाहिए। १२ज्ञानाभ्यास आत्मकल्याण के निमित्त करना चाहिए। आजीविका या वादविवाद के लिए नहीं। जगत में ऐसे भी अनेक हैं जिन्होंने उन्मार्ग का पोषण करने और दूसरों को परास्त करने के लिए ज्ञानाभ्यास किया है / ज्ञानाभ्यास उसीका नाम है जो आत्महित के लिए किया जाता है। १३-आशंसा रहित छः प्रकार का अंतरंग और छः प्रकार का बाह्य तप करना / १४-आप संयम पालना, दूसरे से संयम पलवाना और संयम पालने में किसीके अन्तराय, हो तो उसको मन, वचन और काय से दूर करने का प्रयत्न करना / इस भाँति चौदहवें संयम पद की आराधन करना / १५-एकान्त में बैठकर आत्मस्वरूप का चिन्तवन करना / सांसारिक संबंधों को उपाधिभूत समझ, विभाव से मुक्त हो, स्वभाव में प्रवेश करना और निर्विकल्प दशा का आस्वादन करना इस तरह ध्यान पद का आराधन करना चाहिए। ११-त्रिकरण योगसे, यथाशक्ति उपदेश द्वारा जैनधर्म की वास्तविक पवित्रता तथा प्राचीनता जनसमूह में प्रकट
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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