SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (24) इस भाँति एकेन्द्रिय में भवभ्रमण करने के बाद, वह जीव अनुक्रम से द्वीन्द्रियादि योनियों को पार कर के अन्त में देव, मनुष्य आदि का पर्याय पाता है। फिर मनुष्यमव के अंदर वैराग्यवासित अन्तःकरणवाला होकर, तीर्थकर होनेवाला वह जीव बीस स्थानक के तप की या उसी में के एक आध स्थानक के तप की आराधना करता है; और उस का परिणाम यह होता है कि वह 'तीर्थकर नामकर्म' बाँधने का सद्भाग्य प्राप्त करता है। मनुष्य भव से, आयु पूर्ण कर, वह प्रायः देव गति में जाता है। कदाचित् वह नरक गति में जाता है; तो भी दोनों गतियों के अंदर उस को मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान रहता है, इस से वह अपना च्यवन समय जान लेता है। वह यह भी जान लेता है कि मैं अमुक स्थल में उत्पन्न होऊँगा / उसके बाद वह देव या नरक गति में आयुष्य की जितनी स्थिति भोगनी हो उतनी भोग कर, माता की कूख में आ जाता है। जैसे कि मानसरोवर में हंस आ जाते हैं। ___सामान्य मनुष्य की भाँति भावी तीर्थकर भी नौ महीने तक गर्भ में रहते हैं, परन्तु जितनी वेदना अन्य जीव भोगते हैं उतनी वे नहीं भोगते / ऐसा नियम नहीं है कि सारे तीर्थकर महाराजाओं के नीव महावीर स्वामी की भाँति नौ महीने और साढ़ेसात दिन तक गर्भ में रहें / कई तीर्थकर विशेष समय तक रहते हैं और कई कम समय तक /
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy