SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 492
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (465 ) बंध-हेतु। प्रथम शुभाश्रव और अशुभाश्रव के बन्ध हेतु जानने की आवश्यकता है / इसके जाने विना प्राणी, उसका त्याग नहीं कर सकता / उदाहरण के तौर पर-प्रमु ऋषभदेवने पुरुषों की 72 कलओं में कई ऐसी कलाएं भी दिखलाई है, जिनका भाराधन करने से भास्मा दुर्गति में जाता है। यहाँ यह शंका होती है कि, यदि ऐसा है तो फिर वे बताई क्यों गई हैं ? उत्तर सीधा है। यदि किसी जीव को अमुक बुरी बात का ज्ञान नहीं होता है तो वह उनको छोड़ कैसे सकता है ! जैसे कपटकला बुरी है। मगर जब तक मनुष्य को यह ज्ञान नहीं होता है कि, अमुक कार्य जो मैंने किया है वह कपटरूप है, कपटमिश्रित है या कपटरहित है, तब तक वह कपट को छोड़ कैसे सकता है ! इसी तरह शुभाशुम आस्रवों का हेतु बताना यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। मन, वचन और काय-ये तीन योग कहलाते हैं। यही आस्रव के मूल हैं / इनकी शाखा प्रशाखएँ बहुतसी हैं / जैसे-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य भावनावाला मनः शुभ कर्मों का संचय करता है और विषय कषायवाला मन अशुभ कर्मों को लाता है। श्रुतज्ञान के अनुरूप जो वचनं उच्चारण किया जाता है वह वचन शुभास्रव का हेतु है और इससे विपरीत वचनोचारण अशुमारस्रव का / सुयतनावाला शरीर शुभ आस्रव का हेतु होता है और आरंभादि युक्त शरीर अशुमास्रव का। सामान्यतया 30
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy