SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 483
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (456) . लगा ही रहता है / इसी लिए मनुष्य सौ बरस तक भी पूरे नहीं जीते हैं। किसी मनुष्य को मानसिक, किसी को शारीरक और किसी को वाचिक दुःख होता ही है / पहिले तो मनुष्य जन्म पाना-जन्म पाना ही दश दृष्टांतों से-जिनका कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है-दुर्लभ है / उसके पाने पर भी जीवों को धन का दुःख; धन मिलने पर पुत्र का दुःख और पुत्र मिलने पर उसको पालने पोसने का दुःख इस तरह दुःख परंपरा चही ही जाती है। राजा से लेकर रंक तक कोई भी दुखी नहीं है। हाँ किसी अपेक्षा से लेकर यदि किसी को सुखी बताना हो तो हम जिनअनगारी अर्थात् जैनसाधुओं को बता सकते हैं / मगर यह ध्यान रखना चाहिए कि, वे ही जैनमाधु सुखी हैं जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार चारित्र का पालन करते हैं। आडंबरी और खटपटी नहीं / मोक्षतत्व के अभिलाषी, स्वपर को शान्ति देनेवाले, सर्वथा परिग्रह के त्यागी, ज्ञानादि आत्मगुणों के भोगी, परभव के वियोगी, स्वभाव के योगी, पंचमहाव्रतधारक, विकथादि परिहारक, सत्य और संतोषादि गुणों के धारक, मोहमल्ल के मुप्त दूषणदर्शक, सदागम के सगी, श्रीवीरप्रभु के यथाय वाक्य के रंगी, निःस्पृही, निर्मोही और मुमुक्षुजन ही संसार में सुखी होते हैं और हैं / अन्य वेषधारी पुरुषों को हम प्रत्यक्ष में विडंबना पाते हुए देखते हैं / गृहस्य कोट्याधिप और 3जपति होने पर भी वे सुखी नहीं होते हैं।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy