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________________ (454 ) (भावार्थ ) १-मनुष्यगति में आकर जो जीव अनार्य देश में उत्पन्न होते हैं, वे ऐसे ऐसे पाप करते हैं कि उनका कथन करना भी अशक्य है / २-आर्यदेश में उत्पन्न हो कर भी यदि वह चांडाल हो जाता है तो अघोर पाप करता है और भयंकर दुःख भोगता है / ३-दूसरों की संपत्ति को बढ़ती हुई और अपनी संपत्ति को घटती हुई देख कर, और दूसरों की दासता करके मनुष्य दुखी होते हैं। ४-रोग, जरा और मरणग्रस्त और नीच कर्मोद्वारा विडंबना प्राप्त अनेक मनुष्य अनेक दयाजनक दुःख सहते हैं। अभिप्राय यह है कि, कर्म से घिरे हुए जीव अन्य को दया उत्पन्न हो ऐसी स्थिति में आ गिरते हैं। ५-घोर नरकवास के समान गर्भ का जैसा दुःख है, वैसा दुःख जरा, रोग, मरण और दासता में भी नहीं है / ६-सुकुमाल शरीरवाले को, उसके रोम रोम में अग्नि से तपाई हुई सूइयाँ भौंकने से जितना दुःख होता है उससे आठ गुणा दुःख गर्भवासी जीवों को होता है / ७गर्भवास से निकलते समय प्राणियों को जो दुःख होता है। वह गर्भवास के दुःखों से भी अधिक है; अनंतगुणा है / इसी भाँति जन्म से भी मरते समय जीवों को विशेष दुःख होता है / ८मनुष्य, बाल्यावस्था में, विष्ठादि की क्रीडा से, युवावस्था में अशुचि पूर्ण मैथुन से और वृद्धावस्था में श्वास-कासादि के कारण मुख से टपकती हुई राल से, लज्जित नहीं होता है।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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