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________________ (451) देता है। मगर सवेरा होते होते तो वह राल सूख जाती है; दृढ़ होजाती है; करोलिया उसीमें बँध जाता है और वहां वह मर भी जाता है / इसीतरह मनुष्य अपने सुखके लिए धन, धान्य घा, द्वार, पुत्र, परिवार आदि की अभिवृद्धि करता है। इससे वह मोह बंधन में बंध जाता है; और आत्मकल्याण के हेतु रूप चारित्र धर्म से वंचित रह जाता है। मरकर नरक और तिर्यंच योनि में जाता है और उक्त प्रकार से नरक और तिर्यंच गतिके दुःख भोगता है। परवश पड़े हुए तिर्यच भूख, प्यास, ताड़न, तर्जन आदि के दुःख उठाता है। उनको देखकर एकवार तो कठोर से कठोर मनुष्य का भी जीव पसीज जाता है। पूर्वोपार्जित कुकर्माधीन होकर जीव जो कष्ट उठाते हैं उनका सौवां हिस्सा भी यदि वे धर्म के लिए उठावे तो उनको शुभगति प्राप्त हो जाय और आगे के लिए वे दुःखों से छूट जायें / जैनशास्त्रकार निश्चयपूर्वक मानते हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँचों प्रकार के स्थावरों में जीव है। दूसरे शास्त्रकार भी अग्नि के सिवा दूसरे स्थावरों में जीव होना स्वीकार करते हैं। इसीलिए स्थावर जीवों की यतना करना बताया गया है / बे इन्द्री से लेकर पंचेन्द्री तकके सब जीवों की भी गृहस्थियों को रक्षा करनी चाहिए। ऐसा करने से भवान्तर में सुख, समृद्धि मिलती है; नरक और तिर्यंच गति का भय दूर होता है और उत्तरोत्तर मनुष्य और देवगति से संबंध टूटकर
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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