SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 448
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 421) भगवन् ! आप थोड़ासा अपना आयुष्य बढ़ा लीजिए, जिससे आपके भक्तों को, धर्मध्यान में पीड़ा पहुँचानेवाला भस्मग्रह, सताया न करे / " उस समय भगवानने उत्तर दियाः-" हे इन्द्र ! ऐसा न कभी हुआ है; न होता है और न होवे हीगा / इसी का नाम यथार्थ कथन है / दूसरों में भी यदि. इसी तरह यथार्थ कहने का गुण होता तो उक्त प्रकार की गप्पों का प्रचार नहीं होता / कराल कालने किसी को भी नहीं छोड़ा। महान्, महान् व्यक्तियाँ जैसे-चक्रवर्ती तीर्थकर, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदि असंख्य इस संसार में हुई और लय हो गई / मगर कोई भी सदा रहनेवाला-अमर-नहीं हुआ / अमर ( देव ) भी अपनी आयु खत्म होने पर च्यवन क्रिया करते हैं तो फिर दूसरे प्राणियों की तो बात ही क्या है ! " काल की विशेष रूप से महत्ता समझने के लिए निम्न-लिखित श्लोक भी खास मनन करने योग्य हैं। संसारोऽयं विपत्खानिरस्मिन्नियततः सतः / पिता माता सुहृद्वन्धुरन्योऽपि शरणं न हि // 1 // इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यत्र यन्मृत्योर्याति गोचरम् / अहो ! तदन्तकातङ्के कः शरण्यः शरीरिणाम् // 2 // पितुर्मातुः स्वसुर्धातुस्तनयानां च पश्यताम् / अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि // 3 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy