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________________ ( 384 ) तो वे शत्रु होजाते हैं और उनके लिए जितने भले काम किये गये थे उन सब को वे अवगुण रूप मानने लगते हैं। काया भी ऐसी ही है / हमेशा उसकी सेवा कीजिए, और एकवार जरा सरदी या गरमी लग जाने दीजिए; उस समय उसकी परवाह न कीजिए वह तत्काल ही आपसे विपरीत होजायगी / वह आपका कोई कार्य नहीं करेगी। इसीलिए काया को खलकी उपमा दी गई है / यह बहुत ही ठीक है। जैसे सज्जन खलका विश्वास नहीं करते हैं इसी तरह धर्मात्मा भी शरीर का विश्वास नहीं करते हैं / वे यही कहते हैं कि,-" यह न जाने कब और कैसी अवस्था में विपरीत हो बेठे, इसलिए ये जब तक आज्ञा पालता है, तब तक इस चंचल शरीर से निश्चल धर्मादि कृत्य करा लेने चाहिए। यह कथन सर्वथा उचित है। कहा है: अहो ! बहिनिष्पतितैर्विष्ठामूत्रकफादिभिः / दूणीयन्ते प्राणिनोऽमी कायस्यान्तःस्थितने किम् // भावार्थ-आश्चर्य है कि, शरीर में से निकले हुए विष्ठा, मूत्र और कफादि से लोक घृणा करते हैं; परन्तु जब ये शरीर में होते हैं, तब इनसे घृणा क्यों नहीं करते हैं ! ___यह शरीर विष्ठादि अशुचि पदार्थों से भरा हुआ है / उसके नवों द्वारा में से उसके अन्दर जो कुछ है वह बाहिर निकलता है। जब वह बाहिर आता है तब उससे घृणा होती है। मगर
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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