SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 368) धर्म की साधना पूरी तरह से नहीं होती है। इसी लिए शास्त्रकार कहते हैं कि, बुढापा आने के पहिले ही धर्म की साधना करो / शरीर में करोडों व्याधियाँ गुप्त रूप से रही हुई हैं / वे प्रकट हों उसके पहिले ही धर्म का साधन करना चाहिए। उनके पूर्णतया प्रकट हो जाने से मानसिक और शारीरिक बल में व्याघात पहुँचता है / इसलिए व्याधियों के व्यक्त होने के पहिले .ही धर्म की आराधना करनी चाहिए / तत्पश्चात् अन्तिम श्लोक के उत्तरार्द्ध में बताया गया है कि, इन्द्रियाँ क्षीण हों इसके पहिले ही धर्म साधने का समय है / इन्द्रियाँ जैसे कर्मसाधन में कारण हैं, वैसे ही धर्मसाधन में भी कारण है / यदि इन्द्रियाँ खराब होती हैं, तो पुरुष धर्म साधन के योग्य नहीं रहता है। जैसे अंधा आदमी चारित्र धर्म के योग्य नहीं होता है। क्योंकि, उससे जीवदया की सहायभूत इर्यासमिति नहीं पाली जाती है / जिसकी स्पर्शनेन्द्रिय खराब होती है, वह विहारादि क्रिया नहीं कर सकता है। भादि कारणों से इन्द्रियों का निरोग रहना अत्यावश्यक है। इसलिए धर्मसाधन की समस्त सामग्री पाने पर भी जो प्रमाद करता है, उसका कार्य फिर कभी सिद्ध नहीं होता है। इसलिए. यदि वैराग्य वृद्धि करनी हो तो खास तौर से प्रमाद का त्याग करो।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy