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________________ (131) विचलित हो, विपथ में जा पड़ते हैं / वे साधु और गृहस्थ दोन मार्गों से परिभ्रष्ट हो, संसार समुद्र में गौते खाते हैं / शांति के साथ इसका कारण खोजेंगे तो अज्ञान मालूम होगा। यहाँ कोई शंका करेगा कि, कई सूत्र, सिद्धान्तों के जाननेवाले पदवीधर साधु भी, कर्म के चक्र में पड़, अनर्थ करते हैं, इसका क्या कारण है ? इस शंका का इस तरह से समाधान किया जायगा कि-उनको द्रव्यज्ञान है। मगर स्पशज्ञान नहीं है। जिसके हृदय में स्पर्शज्ञान का प्रकाश पड गया है, वह साधु कभी अनर्थ नहीं करेगा। यदि कभी उससे भूल हो भी जायगी तो तत्काल ही वह अपनी भूल को समझे उसका परित्याग कर देगा / आर्द्रकुमार, अरणकमुनि और नन्दिषेण के समान साधु भी एकवार तो कर्म के योग से पतित हो गये थे / मगर वे पतितावस्था में भी अपतित के समान ही थे / वे केवल कर्म का ऋण चुकाने ही के लिए रोग की भाँति भोग का उपभोग करते थे / वर्तमानकाल में ऐमा होना असंभवता है / मगर ' उठे तब ही से सवेरा ' समझ अपने आप को वापिस सँभाल ले; उसी को ज्ञानी और ध्यानी समझना चाहिए. मगर जो लोगों को ठगने के लिए असती की तरह दंभ करता है, उसका दोनों लोक में अकल्याण होता है। क्योंकि पापी का पाप कभी छिपा हुआ नहीं रहता है / पाप के प्रकट हो जाने से यह भव
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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