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________________ ( 312) जिस मुनि में आचार नहीं है / वह मुनि नहीं है मगर, मुनि-पिशाच है। सूत्रकार आचार को मुख्य मानते हैं। क्यों कि आचार के विना विचार नष्ट होते हैं। पूर्वोक्त गाथा में बताया गया है कि, आचारभ्रष्ट नास्तिक के वचनों का उच्चारण करता है, सो सर्वथा ठीक है / वर्तमान में कई ऐसे ही हैं / जैन वेषधारी परिग्रही कैसे कैसे अनर्थ करते हैं; उन का हमें प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। वे आरंभ समारंभ के सूत्रधार बनते हैं। वे मंत्र, तंत्र, यंत्र जड़ी बूटी और औषधालय के अधिपति बन नहीं करने योग्य कार्यों को भी करते हैं। इतना ही नहीं वे शुद्ध आचार, विचार के साधुओं की निंदा करने में भी बिलकुल पीछे नहीं हठते हैं / वे स्वयं क्रियाकांड को छोड़ते हैं और दूसरों को भी क्रियाकांड करनेसे रोकते हैं। चतुर्दशी के समान उत्तम दिन में भी वे रात्रिभोजनादि क्रियाएँ नहीं छोड़ सकते हैं। पान सुपारी की बात तो दूर रही मगर रात में कढ़ा हुआ दूध पीना भी वे बुरा नहीं समझते हैं / स्वाचारपतित जैन नमधारी कई श्रावक भी केवल बातों ही में कल्याण मानते हैं और दूसरों के दूषण निकालने में चतुर बनते हैं मगर वे मंदमति स्वकल्याण की और कुछ भी ध्यान नहीं देते / वे और तो क्या अभक्ष्य का भी त्याग नहीं करते / रात्रि. भोजनादि, तो उन का एक व्यावहारिक कृत्य हो जाता है / अपने बालकों को मेवा दुग्ध आदि र त म हिलाते हैं। और
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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