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________________ ( 302) हयं नाणं कियाहीणं हआ अन्नाणओ किया / पासंतो पंगुलो दड्डो धावमाणो अ अंधओ // संजोगसिद्धीइ फलं वयंति न हु एकचक्केण रहो पयाइ / अंधो अ पंगू अ वणे समिच्चा ते संपउत्ता नयरं पविट्ठा / भावार्थ-क्रिया विना ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञानहीन क्रिया फिजूल है / जैसे कि, अंधा दौड़ने की शक्ति रखते हुए भी, और लंगड़ा देखते हुए भी दावानल में जल मरता हैं / क्रिया सहित अष्ट प्रवचन माता का निसको ज्ञान हो वह भी ज्ञानी है। क्रिया ज्ञान से ही फलवती होती है / एक पहिये से कभी रथ नहीं चलता / यदि कोई चलाने की हिम्मत करता है, तो कोई अकस्मात घटना हो जाती है। उक्त अंधा और लँगड़ा भिन्न भिन्न होने ही से जल कर नष्ट हो जाते हैं / यदि वे दोनों इकट्ठे हो जाये तो इष्ट नगर में पहुँचे / यानी वे जलने से बच जायें / इसी तरह जहाँ ज्ञान और क्रिया इकट्ठी होती है वहाँ अष्ट महासिद्धि और नवनिधि होती है। वहीं मुक्ति भी सिद्ध होती है। यानी ज्ञानपूर्वक क्रिया करनेवाले को मुक्ति मिल जाती है / भाइयो ! कदापि एकान्त पक्ष में नहीं जाना चाहिए; लोकपूजा और कीर्ति के लिए वास्तविक कीर्ति का नाश नहीं करना चाहिए / जितना बन सके उतना ही धर्मध्यान करना
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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