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________________ (300) और चिन्तामणि की महिमा से सिद्ध हुए हुए कार्य सब इन्द्रजाल के समान हो गये। पीछेसे जब उसको मालूम हुआ कि, उसके हाथ में तो चिन्तामणि रत्न आया था। उसको उसने कौआ उड़ाने में खो दिया / तब उसको अत्यंत पश्चात्ताप हुआ। क्रिया की जरूरत / कई सुखशीली जीव इन्द्रिय सुख के आधीन होकर चारित्र रत्न को दूषित करते हैं। अपवाद को धर्म समझ, प्रतिक्रमण प्रतिलेखनादि क्रियाओं में शिथिल हो लोगों के सामने बड़बड़ाने लगते हैं कि,-"तुच्छ क्रियाओं में क्या धरा है ? सर्वोत्तम तो ज्ञानयोग है / ज्ञान सूर्य के समान है। और क्रिया जुग्न के जैसी है / सदा प्रतिक्रमण प्रतिलेखनादि क्रिया करनेवाले कपट करते हैं / हम को ऐसा करना नहीं आता। हम वैसे ढौंग नहीं काते / जो कुछ करना है, वह शुद्ध करना चाहिए। अशुद्ध करने से भवपरंपरा बढ़ती है / वैसी क्रियाएँ तो मव का कारण बनती हैं।" ऐसी कुयुक्तियों से भद्रिक जीवों को भ्रमित कर लोकपूजा चाहनेवाले को यदि हम सच्चा बहुल संसारी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी / जीव अपने दूषणों को समझ नहीं सकते हैं / इस कथन में भी आश्चर्य करने की कोई बात . नहीं है कि, दूषण को भूषण समझनेवाले जीव प्रथम गुणस्थान में - रहते हैं / संसार रूपी विशाल मंडप के अंदर जीवोंने अनेक
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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