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________________ __" उपज्जेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा"।. ( उत्पाद, व्यय और प्रौव्य ) इस त्रिपदी को प्राप्त करके द्वादशांगी की रचना करते हैं / तो भी उस में यह खास खूबी होती है कि भिन्न 2 गणधरों की बनाई हुई द्वादशांगी का अर्थ समान ही होता है / यदि चाहें तो मोटे रूप से द्वादशांगी के अंदर आये हुए शब्दों को स्वयंभूरमणः समुद्र की उपमा दे सकते हैं। परन्तु समुद्र परिमित है और उनका अर्थ अनंत है। इस लिए उपमा ठीक ठीक नहीं होती / इसी लिए वे अनुपमेय हैं। अर्थात् उनको किसी की उपमा नहीं दी जा सकती है। कहा है कि " एगस्स मुत्तस्स अणंतो अत्यो"। ( एक सूत्र के अनंत अर्थ होते हैं।) ऐसे संख्या बंध सूत्र हैं। इसलिए उनके अर्थों को अनंत कहने में कोई वाधा नहीं दिखती। ___ पूर्वोक्त वाक्य के लिए एक अल्पबुद्धि मनुष्य ने उपहास करते हुए समयसुंदर उपाध्यायनी से कहा:-" साहिब ! ठंडी साया में बैठकर खूब गप्प लगाई है / इसी बात को लेकर कुशाग्रबुद्धि उपाध्यायजी महाराज ने एक वाक्य के आठ लाख अर्थ करके बताये थे। वह ग्रंथ, जिसमें वे अर्थ संकलित किये गये हैं-अब मी विद्यमान है।
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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