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________________ ( 266 ) नहीं मिलता उसके लिए मनुष्य कभी खयाल नहीं करता। जीवन प्रमाद, विकथा और विनोदादि में योंहीं चला जाता है। यह बात कितने खेद की है कि जो जीवनमुक्ति रूपी नगर में पहुँचने का साधन है उसके लिए मनुष्य बिलकुल बेपरवाह रहता है। और इसीलिए सूत्रकारने 'बाल ' शब्द दिया है / सूत्रकार कहते हैं कि-बाल ' की अज्ञानजन्य क्रियाओं को देखकर, उनका विचार कर मुनि को बाल नहीं बनना चाहिए / लोग अधर्म को धर्म समझ कर हिंसा करते हैं और मोह के कारण कुटुंब पोषण को सुपात्र दान समझते हैं। ये भी मिथ्या है / कई लोग भद्रिक पुरुषों को ठगते हैं; परन्तु वास्तव में तो वे ही ठगे जाते हैं। इसलिए हे साधु / तू थोड़ी सी भी माया न कर / मायाचारी के हजारों कष्टानुष्ठान भी वृथा होते हैं। साधु को निर्मायी बन समभाव पूर्वक सुख और दुःख को सहन करना चाहिए / सुख आने पर जीवन की और दुःख आने पर मरण की आशा नहीं करना चाहिए / शीत, उष्णादि परिसह सहन करने चाहिए। __ अब सूत्रकार उदाहरण के साथ, साधुओं को श्रीवीतराग के धर्मपर दृढ रहने का उपदेश देते हैं। कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुसलेहिं दीवयं / कडमेव गहाथ णो कलिं नो तियं नो चेव दावरं // 23 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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