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________________ ( 253) यह कह कर राजसमा में गये कि, मुझे द्रव्य या शासन कीहुकूमत की-कुछ परवाह नहीं है। सभा में ना कर आचार्य महाराजने राजा को चार द्वारवाले सिंहासन पर बैठे देखा / राजा उस समय पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठा था। राजा को देख कर आचार्य महाराज बोले: अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः। मार्गणौधः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् // भावार्थ-हे राजन् / आप ऐसी अपूर्व धनुर्विद्या कहाँ से सीखे हैं ! कि जिससे मार्गणों का समूह-याचक-रूपी बाण * आपके पास आते हैं और गुण-रूपी चिल्ला दिग्दिगान्तरों में चला जाता है / अर्थात् तीरों को दूर जाना चाहिए सो वे तो आपके पास आते हैं और चिल्ले को पास में रहना चाहिए वह दिशाओं में व्याप्त हो गया है। ( यहाँ आचार्य महाराजने याचकों को तीर और उदारतादि गुणों को चिल्ला बता कर कवि कल्पना का चमत्कार दिखाया है / ) इस श्लेषार्थी श्लोक को सुन कर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। वह पूर्व दिशा छोड़ कर दक्षिण दिशा की तरफ जा बैठा ।यानी पूर्व दिशा का राज्य उसने आचार्य महाराज को दे दिया / आचार्य महाराज दक्षिण दिशा की तरफ जाकर यह श्लोक बोले:
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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