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________________ ( 250 ) और आचरण भी मार्ग प्रकाशक हैं / जैसे जिनवचन मार्गप्रवर्तक है, उसी तरह गीतार्थ की प्रवृत्ति भी सर्वथा मान्य है। यह कहना बुरा नहीं होगा कि, जिसने गीतार्थ की प्रवृत्ति का सन्मान नहीं किया उसने तीयकर के वचनों का भी अनादर किया है। श्रीमद् उपाध्याय यशोविजयजी महाराज कहते हैं: द्वितीयानादरे हन्त ! प्रथमस्याप्यनादरः / जीतस्यापि प्रधानत्वं सांप्रतं श्रूयते यतः // भावार्थ-दूसरे प्रमाणों का अनादर होने से पहिले जो जिनवचन हैं, उनका भी अनादर होता है / क्योंकि वर्तमान में जीत-कल्पकी प्रधानता है / ___ इसी प्रकार का कथन धर्मरत्न प्रकरण में भी हैं:" मग्गो आगमणीई अहवा संविग्गबहुजणाइणत्ति / " ( मार्ग आगमानुसार जानना / अथवा संविग्न बहुजनों से आकीर्ण जानना ) उक्त कथनानुसार मूल सूत्र को प्रमाण माननेवाले बालजीव मूल सूत्र का अनादर करनेवाले हैं। वीतराग के शासन में सुविहीताचार्यों का ऐसा मत है कि-जिन बातों का सूत्रों में निषेध और विधान नहीं है; भगर चिरकाल से जिनको जनसमुदाय मानता करता आया है उनको गीतार्थ मुनि-जिन्हों ने अपनी मति से दोषों को दूर कर दिया है
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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