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________________ (246 ) चित्तभित्तिं न निजाए नारिं वा सुअलंकियं / भक्खरं पिव ठूण दिढि पडिसमाहरे // 55 // हत्थपायपलिच्छिन्नं कन्ननासविगप्पियं / अविवाससयं नारिं बंमयारी विवज्जए // 16 // भावार्थ-जैसे मुर्गे के बच्चे को बिल्ली का सदा भय रहता है। इसी तरह ब्रह्मचारी पुरुषों को स्त्रीके शरीर का भय रहता है। इसलिए चित्राम की स्त्रियों को भी नहीं देखना चाहिए / यदि किसी कारण से, अचानक स्त्री पर दृष्टि पड़ जाय तो, दृष्टि को तत्काल ही वापिस ऐसे ही खींच लेनी चाहिए कि, जिस तरह सूर्य पर से दृष्टि खींच लेते हैं / जिस के हाथ, पैर, कान और नाक कटे हुए हों; और जिसकी सौ बरस की अवस्था हो गई हो; उस स्त्रीके साथ भी ब्रह्मचारी को परिचय नहीं करना चाहिए / हाथ, पैर, नाक, कान विहीन सौ बरस की स्त्रीके साथ परिचय करने की भी जब भगवान सूत्रकार मनाई करते हैं, तब जवान स्त्री की तो बात ही क्या है ? भागवत और मनुस्मृति भी इस बात को स्वीकार करते हैं / भागवत के ग्यारह वें स्कंध के चौदहवें अध्ययन में और मनुस्मृति में कहा है कि: स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूरत आत्मवान् / क्षेमे विविक्त आसीनश्चिन्तयेन्मामतन्द्रितः // मात्रा स्वत्रा दुहित्रा वा न विविक्ताप्सनो भवेत् / बच्वानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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