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________________ ( 242 ) का हो रहा है। इससे गृहस्थ, साधुओं का जो विनय करना चाहिए, वह नहीं करते / उल्टे किसी मौके पर वे मन, वचन और काया से साधुओं की आशातना करते हैं / इतना ही नहीं वे अपना थोडासा अपमान होने पर साधुओं को दुःख देने और उनकी फजीहती करने को भी तैयार हो जाते हैं / इसीलिए सूत्रकारने गृहस्थों का परिचय न बढ़ाने की-गृहस्थों से दूर रहने की आज्ञा दी है। साधु को रागद्वेष रहित होकर यथाशक्ति तप भी करना चाहिए / तप के विना कर्म का नाश नहीं होता है। तप के साथ वचनगुप्ति की भी रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि पुण्य की कमी के कारण तपस्या करनेवाले प्रायः जीवों को बहुत जल्द क्रोध हो आता है / इसलिए वचन पर अधिकार रखना आवश्यक है। जिनकल्पी साधुओं का आचार / जैनशास्त्रों में दो प्रकार के साधु बताये गये हैं। ( 1 ) जिनकल्पी; और (2) स्थविरकल्पी। यहाँ जिनकल्पी साधुओं का थोडासा आचार बताया जायगा / सूत्रकार फर्माते हैं: णो पिहे ण या वर्षगुणो दारं सुन्नघरस्त संजए। पुढेण उदाहरे वायं ण समुच्छे णो संथरे तणं // 13 // जत्थत्थमए अणाउले समविसमाइं मुणी हियासए / चरगा य दुवावि भेरवा अदुवा तत्थ सरीसवा सिया॥१४॥
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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