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________________ ( 235 ) 'मुनि ' कहलाने योग्य है / परन्तु जो ऐसे नहीं होते हैं, अर्थात् ऊपर बताये हुए धर्म को जो नहीं पालते हैं वे, मेरा मेरा कर, विनश्वर वस्तुओं में मुग्ध हो मरते हैं, और दुर्गति में जाते हैं / धन धान्यादि इस संसार में दुःख देनेवाले हैं। इतना ही नहीं परलोक में भी वे महान् दुःख के देनेवाले हैं। धर्म का नाश करनेवाला भी परिग्रह ही है / यह समझकर कौन बुद्धिमान् गृहवास का सेवन करना चाहेगा ! पहिले के दो पदों में सत्य साधु का स्वरूप बताया गया है। उन में यह भी बताया गया है कि साधु वृत्तिवाले ही इस लोक में और परलोक में सुखी होते हैं / इससे विपरीत वृत्तिवाले जीव दुःखी हैं / अगले दो पदों में परिग्रह दुःख का कारण बताया गया है। इस बात को विशेष रूपसे स्पष्ट करने का प्रयत्न करना पिष्ट पेषण मात्र होगा / क्यों कि द्रव्य के उपार्जन करने में, उस की रक्षा करने में, और उस को खर्च करने में जो कष्ट होता है, उस को सब भली प्रकारसे जानते हैं। इसी लिए नीति के जाननेवाले पुरुषोंने ' अर्थ ' नाम के पुरुषार्थ को धिक्कारा है / कहा है कि: अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे / आये दुःखं व्यये दुःखं धिगन् दुःख भाजनान् // ___ मावार्थ-धन को पैदा करने में दुःख होता है। और
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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