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________________ ( 195 ) के लिए शुद्ध आहार ढूँढना, कैसा अच्छा ढौंग है ! और भी कई तरह के मर्मभेदी शब्द उसने ऋषि को कहे मगर फिर भी उनके मनोमन्दिर में विराजमान शान्ति देवी जरासी भी विचलित नहीं हुई। देवने अपने विभंग ज्ञान से देखा। मगर मुनि के हृदय में उसे कुछ भी परिवर्तन नहीं मालूम हुआ। ऋषिने कहा:" हे महानुभाव ! भाप नगर में चलिए / वहाँ औषध आहार आदि का अच्छा सुभीता होगा।" यह सुन कर पीडित साधु बोला:-" स्वार्थी मनुष्य को दूसरे के सुखों का ध्यान थोड़ा ही रहता है / यह देख रहा है कि मेरे में एक कदम चलने जितनी भी शक्ति नहीं है तो भी यह अपने सुभीते के लिए मुझ को नगर में चलने के लिए कह रहा है / ऐसे स्वार्थोध साधु को किसने वैयावञ्च-सेवा शुश्रषा करनेवाला बनाया है ? जान पड़ता है कि, स्वयमेव वैयावच्च कर्ता बन बैठा है।" ऐसी बातें सुन कर भी धीर, वीर और गंभीर हृदयी महामुनि के मन में विकार नहीं उठा / बल्के उन्हों ने सामनेवाले विकृत माववाले साधु को शान्त करने की ओर मन को लगाया। वे बोले:-" महाराज ! आप मेरे कंधे पर बैठिए / मैं आप को किसी भी तरह का कष्ट पहुँचाये विना उपाश्रय में ले जाऊँगा।"
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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