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________________ ( 184 ) और चाहे जैनी ही हो; जब तक सरल प्रकृति और सम्यग्ज्ञान नहीं होते हैं, तब तक उस का कल्याण नहीं होता है। इनके अभाव में उसकी की हुई क्रियाएँ भी सब निष्फल जाती हैं। जहाँ कपट क्रिया होती है वहाँ क्रोधादि कषाय भी स्वयमेव आ उपस्थित होते हैं। ये संयमधारी पुरुषों को भी, उन की धर्मक्रियाओं को नष्ट भ्रष्ट कर दुर्गति में पहुँचाती हैं, तत्र फिर अन्य लोगों की तो बात ही क्या है ? इसी लिए भगवान उपदेश देते हैं कि: पुरिसो रम पावकम्मुणा पलियन्तं मणुयाण जीवियं / सन्ना इह काममुच्छिया मोहं जंति असंवुडा नरा // 10 // भावार्थ:-हे मनुष्यो / तुम पाप कर्म से मुक्त होओ; क्योंकि मनुष्यों की आयु उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की होती है। उसमें से भी संयम के अधिकारी तो पूर्वकोटि वर्ष में थोड़ी आयुवाले ही होते हैं। विचारने की बात है कि, भरतक्षेत्र में काल की अपेक्षा से मनुष्य की उत्कृष्ट आयु पूर्व कोटि वर्ष की थी; मगर पंचम काल में तो व्यवहार से 100 सौ बरस की आयु ही मनुष्य की समझी जाती है / इतनी आयु भी कोई महान भाग्यवाला ही निश्चित और रोगरहित होकर भोगता है / अन्यथा आजकल तो जो कोई 50 या 6 0 बरस की आयु में मरता है उसको
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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