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________________ ( 172) का मरण हो जाता है तब जीव व्याकुल हो उठता है। मगर जहा, दोचार घंटे या पाँच पचीस दिन बीते कि मनुष्य जैसा का तैसा ही वापिस होजाता है। फिर वही लोहा और वही लुहार / किमी तरह की चिन्ता नहीं रहती। शास्त्रकार पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि जिन भावों के द्वारा तुम्हारी भावना दृढ, उत्तम हो, उन भावों को कभी मत छोड़ो। मगर बहु संसारी जीव उस्टे विचारों के चक्कर में पड़ते हैं। वे सोचते हैं कि-" साधुओं के पास जाना ठीक नहीं है। क्योंकि उनका धंधा तो संसार को असार बताने का है। सुनते सुनते किसी दिन कैसा समय हो; और अचानक ही वैराग्य का रंग लग जाय तो अच्छा नहीं। इसलिए अच्छा यही है कि साधुओं के पास जाना ही नहीं।" ऐसे लोग दूसरों को भी साधुओं के पास जाने से रोकते हैं और उन्हें कहते हैं कि “क्या संसार में, साधुओं के पास गये विना धर्माराधन नहीं हो सकता है ?" ऐसे विचार और कृत्य करनेवाला मनुष्य जब जन्मान्तर में भी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं कर सकता है तब उस को ज्ञान, दर्शन और चारित्र तो मिल ही कैसे सकते हैं ! इसी लिए माता, पितादि के स्नेह में पड़ने का निषेध कर भगवान कहते हैं कि: मायाहिं पियाहिं छुप्पइ नो सुलहा सुगई य पेच्चओ। एयाई भयाइं पेहिया आरंमा विरमेज सुव्वए // 3 //
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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