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________________ शीतो रविर्भवति शीतरुचिः प्रतापी स्तब्ध नभो जलनिधिः सरिदम्बुतृप्तः / स्थायी मरुद्विवहनो दहनोऽपि जातु लोमाऽनलस्तु न कदाचिददाहकः स्यात् // भावार्थ-शायद सूर्य शीतल हो जाय; चंद्र प्रतापी-उष्ण स्वभाववाला बन जाय, आकाश स्तब्ध हो जाय; समुद्र नदियों के जल से तृप्त हो जाय, पवन स्थिर हो जाय और अग्नि अपने दाहक गुण को छोड़ दे; मगर लोम रूपी अग्नि कमी अदाहक-न जलानेवाली-नहीं होती है / __वास्तव में लोम रूपी अग्नि से प्राणियों के अन्तःकरण . भस्मीभूत हो जाते हैं। उन के शरीर में, लोही मांस को सुखाकर, अस्थिपंजर अवशेष रख देता है। इतनी हानि उठा लेने पर भी प्राणी लोभ का त्याग नहीं करते हैं। घृत को पा कर जैसे अग्नि विशेष रूप से भमक उठती है इसी तरह लाभ के द्वारा लोभानल भी भयंकर रूप धारण करता जाता है। बढ़ते बढ़ते वह अग्नि यहाँ तक बढ़ जाती ह कि, जप, तप, संयम और विद्या आदि सब गुणों को जला कर जगत् के पुज्य को भी अपूज्य बना देती है / लोभ के जोर से मनुष्य अपना कर्तव्य भूल कर, दुनिया का दास बन जाता है / शास्त्रकार कहते है कि:
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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