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________________ (147) पर अपना द्वेष न हो तो भी अपना उसके प्रति द्वेष होना बताने की चेष्टा करता है / अपने स्वामी से अपने को थोडा लाम हुआ है, यह सोच कर मन में दुःखी होता है; परन्तु उसके सामने यह बताने का प्रयत्न करता है कि इस लाम से मैं बहुत सन्तुष्ट है / वह कहता है-" आप ही मेरे अन्नदाता हैं / आप ही के प्रताप से मैं सुखी हूँ। आप की दी हुई प्रसादी मेरे लिए लाख रुपये की है। " . इस भाँति लोभी खुशामद करता है। ऐसी खुशामदे करने पर भी बेचारे की आशा पूरी नहीं होती है। वह जैसे जैसे लोभ रूपी खड्डे को भरने की कोशिश करता है वैसे ही वैसे वह विशेष रूप से खाली होता जाता है। इस लिए कहा है कि: अपि नामैष पूर्येत पयोभिः पयसांपतिः / न तु त्रैलोक्यराज्येऽपि प्राप्ते लोमः प्रपूर्यते // . भावार्थ-समुद्र में चाहे कितना ही पानी जाय तो भी वह पूर्ण नहीं होता है; इसी भाँति तीन लोक का राज्य मिल माने पर भी लोमरूपी समुद्र कभी नहीं भरता है। - समुद्र जैसे उस में कितना ही जल आ जाय तो भी वह नहीं भरता है वैसे ही चाहे कितना ही लाम हो जाय तो मी होमरूपी समृद्र खाली का खाली ही रहता है / इतना ही नहीं
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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