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________________ (104) धूर्तस्य वाक्यैः परिमोहितानां केषां न चित्तं भ्रमतीह लोके // भावार्थ-लोग मद्रिक हैं-भोले हैं / वे जिस मार्ग पर चलाये जाते हैं उसी पर चलते हैं और उसी में आनद मानते हैं। क्यों कि इस संसार में धूर्त लोगों के वाक्यों पर मुग्ध हो कर किन लोगों का चित्तभ्रम नहीं हो जाता है ? (एक वार तो सब का हृदय अवश्यमेव भ्रम में पड़ जाता है। कपटी साधु नितना अनर्थ करता है उतना औरों से होना कठिन है।) भारतवर्ष में लगभग बावन से-अठ्ठावन लाख के लगभग नामधारी साधु हैं। उन में से कई ऐसे हैं कि जिन्हों ने कीर्ति और धनमाल आदि के आधीन हो कर अपने आचार को छोड़ दिया है; और उन्मत्त हो शास्त्र मार्ग का परित्याग कर स्वेच्छाचार का वर्ताव कर रहे हैं। हिन्दु धर्म शास्त्रो में-मनुस्मृति, कूर्मपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, और नरसिंहपुराण आदि ग्रंथो में वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था है / उस व्यवस्था में सन्यासियों के लिए जो व्यवस्था है उस व्यवस्था के अनुसार, हम देखते हैं कि वे नहीं चलते हैं / हम थोडासा उस व्यवस्था का यहां उल्लेख करेंगे। .. .
SR No.023533
Book TitleDharm Deshna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1932
Total Pages578
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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