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________________ मीति-शिक्षा-संग्रह (65) .: 11 यदि तुम शत्रु को मित्र बनाना चाहते हो तो तुम उसकी शत्रुता पर खयाल न कर उसका हर तरह से उपकार करते रहो, वह पाप मित्र बन जायगा। 12 यदि पुण्य-योग से धन- सम्पत्ति प्राप्त हो जाय तो अहंकार न करना चाहिए, बल्कि विशेष नम्र होना चाहिए; क्योंकि नम्रता से मनुष्य, जनता में आदरणीय होता है, तथा आत्मा के विचार निर्मल होते हैं और विचारों की निर्मलता से शुभ कर्मों का बन्ध कर आत्मा उच्च पद पर पहुँचता है। 13 जवन्य पुरुष विघ्नों के भय से कोई काम प्रारंभ ही नहीं करते, मध्यम पुरुष काम को प्रारंभ करके विघ्न मा जाने पर छोड़ बैठते हैं, तथा उत्तम पुरुष अनेक विघ्नों के आने पर भी प्रारंभ किये हुए कार्य को परिणाम तक पहुँचाये विना नहीं छोड़ते। 14 धर्म अर्थ और काम रूप त्रिवर्ग का साधन किये विना मनुष्य जन्म पशु समान निष्फल है। उन में भी विद्वान् लोग धर्म को ही प्रधान मानते हैं; क्योंकि धर्म के विना धन और काम (सांसारिक सुख) नहीं मिलता / इसलिए बुद्धिमानों को धर्म कार्य में निरन्तर प्रवृत्ति करनी चाहिए। 15 विपत्ति के समय आत्मा को उच्च स्थिति में रखना, उत्तम पुरुषों को अपना अनुयायी बनाना, न्याय पूर्वक आजीविका करना प्राण जाने पर अयोग्य काम न करना, दुर्जन से प्रार्थना न करना,
SR No.023531
Book TitleNiti Shiksha Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBherodan Jethmal Sethiya
PublisherBherodan Jethmal Sethiya
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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