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________________ ( ६६ ) "L यांग सूत्रमां पण उपासक दशांग सुत्रनुं स्वरूप वर्णववाना अधिकारमां साक्षात् श्रावकोने उपधान करवानुं हुं छे. ते आ प्रमाणे छे" श्रावकोना शील व्रत, विरति, गुण, प्रत्याख्यान, अने पौषधोप बासनो अंगीकार तथा श्रुतनो अभ्यास, तप, उपधान अने प्रतिमा वहेः बी ए सर्व कर्त्तव्यो छे. " वळी व्यवहारवृत्तिम पण कर्तुं छे केश्रुतग्रहण करवाने इच्छनार पुरुषे उपधान करं. " तेमज जेओ श्रावकोना उपधानने मानता नथी, तेओ साधुओना योगोद्रहनने केम माने छे ? कारण तेना विचार प्रमाणे श्रावकोनी जेम साधुओने पण योग वहन कर्या विनाज सूत्र भणवा विगेरेनी शुद्धि थइ जशे . तेथी कदाग्रहनी ग्रस्ततानो त्याग करीने तथा सिद्धांत मार्गना अनुया यी ( अनुसरवा ) पणानो अंगीकार करीने तेमां कह्या प्रमाणे श्रुतस्कंधना पठन पाठन विगेरे परिभाषासहित नमस्कारादिक सूत्रनी आराधनाना हेतुरूप उपधानने जिनेश्वरना वचनना प्रमाणथी प्रमाणपणे अंगीकार करवा. आ प्रमाणे महानिशीथमां उपधान तप कर्या विना नमस्कारादिक सूचना पठन पाठनादिकनो निषेध कर्यो छे, तोपण हालमां द्रव्य, क्षेत्र अने कालादिकनी अपेक्षावंडे लाभालाभनो विचार करीने आचरणावडे उपधान तप कर्या विना पण सूत्र पठनादिक करातुं देखाय छे. आचरणानुं लक्षण कल्पभाष्यमां आ प्रमाणे कां छे के“ कोइ उत्तम पुरुषे अशठ भाव करीने कोइ पण ठेकाणे कांइपण असावद्य ( निर्दोष) आचरण कर्यु होय, अने तेनो बीजाओर निषेध
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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