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________________ सत्कार साथे शहरमा लावी विवाहनी रीतप्रमाणे बहुमानपूर्वक गृह.. द्रव्य विगेरे घणी वस्तुओनी पहेरामणी करी. बीजे दिवसे ते नगरना उद्यानां विशिष्ट ज्ञानी गुरु महाराज समवसर्या. तेने वांदवा माटे चंद्र राजा सर्व परिवारसहित गयो. गुरुने वादी यथास्थाने बेसी देशना सांभळी. देशनाने अंते अवसर जोइने राजाए पोतानी बन्ने कन्यानो पूर्वभव पुछयो, त्यारे ज्ञानी गुरु महाराज बोल्या के-" हे राजा ! तारी आबे कन्या पूर्वे “धन" अने "धनक" नामना बे श्रेष्टीनी "धनश्री" अने “धनप्रभा" नामनी चंद्रनी अने सूर्यनी स्त्री ज्योत्स्ना अने प्रभानी जेवी स्वजनोमां अत्यंत मानवालायक प्रियाओ हती. ते बन्ने जैनधर्ममा आसक्त हती, अने प्राये करीने पापना स्थानकोथी निवृत्ति पामेली हती. तेमन ज्ञाननुं आराधन करवामां निपुण अने उपधानादिकनुं बहुमान करनारी हती. परंतु तेमां पहेली जे धनश्री हती ते कृपण हती, तेथी धनादिकनो व्यय करवामां तेणीनुं हृदय दूमातुं हतुं. ते एटली बधी कृपण हती के मुनिओने पण भावथी दान देती नहीं. परंतु पोते कृपण होवाथी पोताने घेर जे कोइ मुनिराज आवता, तेमने घरना बीजा माणसो वहु आपी दे छ, माटे हुं मारे हाथेज आपुं" एम विचारी उठीने घणी भक्ति तथा आदर देखाडती, घरमा सारी वस्तु घणी छतां पण थोडी देखाडती, अने “जेम मुनिओने जरा पण दोष न लागे तेम थोडं पण शुद्ध एवं सुपात्र दान आपवाथी ते अनंत फळनु कारण थाय छे. " एम बोलती छती पासे रहेला वीजा माण
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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