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________________ ( २३७) जे जाणे छे तेज धन्य पुरुष, ज्ञान अने महान् उदयना मन्दिर समान विजयलक्ष्मी देवीने प्राप्त करे छे. ॥६॥ ॥ श्री केवलज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ. ॥ - त्रण छत्र, चापर, सुखकर्ता अशोकवृक्ष, देवध्वनि, दुंदभि (देव वाजित्र), तेजेकरी झलहळतुं भामंडल, देवकृतपुष्पनी दृष्टि अने सिंहासन ( ए आठ प्रधान प्रातिहार्यो )जिनेश्वर प्रभुना छे. तेज प्रभुना उदार केवलज्ञानने विजयलक्ष्मीसूरि वन्दना करे छे. ॥ १ ॥ ॥श्री केवळ ज्ञानसंबंधी दुहानो अर्थ. ॥ बहिरात्मपणानो त्याग करवाथी अन्तरात्म स्वरूपने अनुभवी.जे परमात्मा थाय छे तेमना ज्ञान स्वरूपनो एकज भेद छे. ॥१॥ पुरुषोमा उत्तम परमेश्वर स्वस्वभावनी रमणतानुं सुख भोगववारूप परमानन्द उपयोगे करी सर्व पदार्थोने विशेष धर्मे करी तथा सामान्य धर्मे करी जाणे छे. ॥ २ ॥ प्रतिपादन कर्यु छे भव्य तथा अभव्य. पणुं जेमणे एवा त्रिकाल स्वरूपने जाणनारा जिनेश्वर परमात्मा गुणपर्यायोना अनंतपणावाला सर्व द्रव्योने जाणे छे. ।। ३ ।। असंख्य प्रदेशी आत्माना एक प्रदेशमा पण, अनन्ता अलोकाकाशने उपाडीने लोकाकाशमा स्थापन करवाने समर्थ थवाय तेवू अनन्तु प्रशस्त वीर्य रहेखें छे. ॥ ४ ॥ कल्याणरूप विजयलक्ष्मीने प्राप्त करवा माटे ज्ञानपंचमीने दिवसे केवलदर्शन तथा केवलज्ञानना चिदानंद स्वरूप तेज:पुंजनी पूजा करीए ॥ ५ ॥ ॥ इति श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत ज्ञानपंचमीना देववंदननो अर्थ सपूर्ण.॥
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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