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________________ ( २२७ ) समुद्र छे, आ प्रमाणे अवलुं देखनारा शिवराजर्षिनो विभंगदोष वीर प्रभुनी प्रसन्नताथी नाश पाम्यो अने प्रसिद्ध अवधिगुण प्रगट थयो. || २ || अवधिज्ञाननी उत्कृष्टी स्थिति कांइक अधिक छासठ सागरोपमनी जाणवी अने जघन्यथी कोइक जीवने आश्रीने एक समयनी जाणवी. ( अवधिज्ञानना क्षयोपशमनी तरतमताथी अथवा द्रव्यादिकनी ) विचित्रताना संबन्धथी तेना असंख्याता भेदो छ, ए संबन्धी विशेषावश्यकमां विशेष व्याख्यान करेलुं छे. ॥ ३ ॥ ऋषभदेव भगवान् विगेरे चोवीश तीर्थकरोना चरणकमलने जेओ नमस्कार करे छे तेवा अवधिज्ञानी मुनिवरोनी संख्या एकलाख तेत्री शहजारने चारसैनी छे, ॥ ४ ॥ अवधिज्ञानी आनन्द श्रावक ( वीरप्रभुना १० श्रमणोपासकोमा पहेला ) ने गौतमस्वामीजीए मिच्छामि दुकडं आप्यो हतो, (ते माटे) विजयलक्ष्मीरूप सुखना मन्दिर तुल्य ज्ञान अने ज्ञान चन्त प्राणीओनी आशातनानो त्याग करो ॥ ५ ॥ १ ऋषभ - १०००, अजित - ९४००, संभव - ९६००, अभिनन्दन - ९८००, सुमति - ११०००, पद्मप्रभ - १००००, सुपार्श्व - ९०००, चन्द्रप्रभ - ८०००, सुविधि - ८४००, शीतल - ७२००, श्रेयांस-६०००, वासुपूज्य - ५४००, विमल ४८००, अनन्त - ४३००, धर्म - ३६००, शान्ति - ३०००, कुंथु - २५००, अर - २६००, मल्लि - २२००, मुनिसुव्रत - १८००, नमि - १६००, नेमि - १५००, पार्श्व - १४००, वर्धमान २३००, कुल - १३३४०० अवधिज्ञानीनी संख्या छे,
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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