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________________ (१८३) ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ रसीयानी देशी ॥ प्रणमो पंचमी दिवसे ज्ञानने, गाजी जगमारे जेह ।। सुज्ञानी॥ शुभ उपयोगे क्षणमा निर्जरे, मिथ्या संचित खेह ॥मु०॥प्रण०१॥ संतपदादिक नव द्वारे करी, मति अनुयोग प्रकाश ||मु०॥ नय व्यवहारे आवरण क्षय करी, अज्ञानी ज्ञान उल्लास ।। सुप्रण०२॥ ज्ञानी ज्ञान लहे निश्चय कहे, दो नय प्रभुजीने सत्य ॥ मु०॥ अंतर मुहूर्त रहे उपयोगथी,ए सर्व प्राणीने नित्य सु०॥प्रण०३॥ लब्धि अंतर मुहूर्त लघुपणे, छाशठ सागर जिह ॥ सु०॥ अधीको नरभव बहुविध जविने, अंतर कदिये न दीठ ॥सु०॥प्रण०४॥ संप्रति समये एक बे पामता, होय अथवा नवि होय ।। मु०॥ क्षेत्र पल्योपम भाग असंख्यमां, प्रदेश माने बहु जोय ॥१०॥प्रण०६॥ मतिज्ञान पाम्या जीव असंख्य छे, कह्या पडिवाइ अनंत ॥सु०॥ सर्व आशातन वरजो ज्ञाननी, विजय लक्ष्मी लहो संत ।मु०॥प्रण०६॥ ॥ इति श्री मतिज्ञान स्तवन ॥ पछी जयवीयराय संपूर्ण कही, खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् श्रीमतिज्ञान आराधनार्थ करेमि काउस्सगं वंदणवत्तिआए० अने अन्नथ्य उससीएणं. कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी, पारी, नमोऽहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वखाधुभ्यः कही थुई कहेवी. ते आ प्रमाणे:
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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