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________________ ( १७३ ) देवी श्री अंबिकाख्या जिनवरचरणां भोजभृंगीसमाना, पंचम्यन्हस्तपोर्थं वितरतु कुशलं धीमतां सावधान ॥४॥ अर्थः- ( श्रीअंबिकाख्या के० ) श्रीअंबिका छे नाम जेनुं एवी ( देवी के० ) देवी, ते ( सावधाना के ० ) सावधान एवी छती: धीमतां के० बुद्धिमान् एवा भविक जीवना ( पंचम्यन्हः के० ) पंचमीना दिवसना (तपोर्थ के ० ) तपने माटे ( कुशलं के० ) कुशल जे छे तेने ( वितरतु के० ) विस्तारो ते देवी केवी छे ? तो के ( स्वर्णालंकार के ० ) सुवर्णना जे अलंकार तेने विषे ( वल्गन्मणिकिरणगण के ० ) वलग्या एवा जे मणि तेनां किरणना जे गण, तेणे करी (ध्वस्तनित्यांधकारा के० ) टाल्यो छे निरंतर अंधकार जेणे, वली ते देवी केवी छे ? तो के ( हुंकारा के० ) हुंकारनो राव जे शब्द तेणे करी ( दूरीकृत के० ) दूर कर्या छे (सुकृतजनत्रात के०) सुकृतनो करनारो एत्रो जे जनसमूह तेना ( विघ्नप्रचारा के० ) विघ्नना प्रचार जेणे, वली ते केवी छे ? तो के ( जिनवरचरणांभोज के० ) श्रीवीतरागनां चरणरूप कमलने विषे ( भृंगीसमाना के० ) भ्रमरी समान छे. ॥ ४ ॥ श्री देवविजयजी कृत पांचमनी सझाय. चोपाइ सरसति सामिनी करो पसाय; सद्गुरुना हुं प्रणमुं पाय, पंचमी तप फल महिमा सुणो, जे करतां जग शोभा गणो. १
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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