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________________ ( १५८ ) ज्ञान विराधक प्राणीया मति होना, ते तो परभव दुःखिया दीना ॥ भरे पेट ते पर आधीना, नीच कुल अवतार अंधा ठूला पांगुळा पिंडरोगी, जनम्या ने मातवियोगी || संताप घणो ने शोगी, योगी अवतार मूंगा ने वली बोबडा धनहीना, प्रिया पुत्र वियोगे लीना ॥ - मूरख अविवेके भीना, जाणे रणनुं रोझ -ज्ञानतणी आशातना करो दूरे, जिन भक्ति करो भरपूरे ॥ रहो श्री शुभवीर हजूरे, सुखमांहे मगन्न ॥ इति सप्तमी नैवेद्य पूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ।। आ० ॥ २ ॥ ॥ आ० ॥ ३ ॥ ॥ आ० ॥ ४ ॥ ॥ आ० ॥ ५ ॥ १ श्री ज्ञान पंचमीनुं चैत्यवंदन. त्रिगडे बेठा वीरजिन, भाखे भविजन आगे || त्रिकरणशुं त्रिहुं लोक जन, निसुणो मन रागे आराधो भलि भातसें, पांचम अजुवाली ॥ ज्ञान आराधन कारणे, एहज तिथि निहाली ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो एणे संसार ॥ ज्ञान आराधनथी लां, शिवपद सुख श्रीकार ज्ञान रहित क्रिया कही, काश कुसुम उपमान ।। लोकालोक प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ज्ञानी सासासासमें, करे कर्मनो खेह || पूर्व कोडी वरसां लगे, अज्ञाने करे तेह देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान || ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 ॥५॥
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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