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________________ ( १४७ ) ॥ श्रुतपद पूजा ॥ ॥दोहा॥ वक्ता श्रोता योगयी, श्रुत अनुभव रस पीन ॥ ध्याता ध्येयनी एकता, जय जय श्रुत सुख लीन ॥ १॥ ॥ढाळ ॥ . अविनाशीनी सेजडीए रंग, लाग्यो मारी सजनी जीरे ॥ ए देशी ॥ श्रुतपद नमिये भावे भविया ! श्रुत छे जगत आधारजी ।। दुःसम रजनी समये साचो, श्रुत दीपक व्यवहार ॥ श्रुतपद नमियेजी ॥ए आंकणी ॥१॥ बत्रीश दोषरहित प्रभु आगम, आठ गुणे करी भरियुजी ॥ अर्थथी अरिहंतजीए प्रकाश्युं, सूत्रथी गणधर रचियुं ॥ श्रु० ॥२॥ गणधर प्रत्येकबुद्धे गुंथ्युं, श्रुतकेवली दश पूर्वीजी ।। सूत्र राजासम अर्थ प्रधान छ, अनुयोग चारनी ऊर्वी । श्रु०॥ ३ ॥ जेटला अक्षर श्रुतना भणावे, तेटला वर्ष हजारजी ॥ स्वर्गनां सुख अनंतां विलसे, पामे भवजल पार ॥ श्रु० ॥ ४ ॥ केवळथी वाचकता माटे, छे सुअनाण समत्थनी ॥ श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञाने जाणे, केवली जेम पयत्थ ॥श्रु० ॥५॥ काल विनय प्रमुख छे अडविध, सूत्रे ज्ञानाचारजी ॥ श्रुतज्ञानीनो विनय न सेवे, तो थाये अतिचार ॥श्रु० ॥६॥ चउद भेदे श्रुत वीश भेद छ, सूत्र पिस्ताली भेदेजी ॥ रत्नचूड आराधतो अरिहा, सौभाग्य लक्ष्मी सुख वेदे॥ श्रु० ॥७॥ || इति श्रुतपद पूजा एकोनविंशतिः ॥१९॥
SR No.023524
Book TitleGyanpanchami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManek Bahen
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1914
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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